Bhagavad Gita
Share
Share it on your social apps
Copy
भक्तियोगः
Bhakti yoga
Adhyaya 12
1
अर्जुन उवाच |
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते |
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमा || 1||
2
श्रीभगवानुवाच |
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते |
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता || 2||
3
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते |
सर्वत्रगमचिन्त्यञ्च कूटस्थमचलन्ध्रुवम् || 3||
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय |
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता || 4||
4
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते |
सर्वत्रगमचिन्त्यञ्च कूटस्थमचलन्ध्रुवम् || 3||
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय |
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता || 4||
5
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ||
अव्यक्ता हि गतिर्दुखं देहवद्भिरवाप्यते || 5||
6
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्न्यस्य मत्परा |
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते || 6||
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् |
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् || 7||
7
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्न्यस्य मत्परा |
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते || 6||
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् |
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् || 7||
8
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय |
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय || 8||
9
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् |
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय || 9||
10
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव |
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि || 10||
11
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रित |
सर्वकर्मफलत्यागं तत कुरु यतात्मवान् || 11||
12
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते |
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् || 12||
13
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र करुण एव च |
निर्ममो निरहङ्कार समदुखसुख क्षमी || 13||
सन्तुष्ट सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त स मे प्रिय || 14||
14
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र करुण एव च |
निर्ममो निरहङ्कार समदुखसुख क्षमी || 13||
सन्तुष्ट सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त स मे प्रिय || 14||
15
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य |
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य स च मे प्रिय || 15||
16
अनपेक्ष शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ |
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्त स मे प्रिय || 16||
17
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ् क्षति |
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य स मे प्रिय || 17||
18
सम शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो |
शीतोष्णसुखदुखेषु सम सङ्गविवर्जित || 18||
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् |
अनिकेत स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर || 19||
19
सम शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो |
शीतोष्णसुखदुखेषु सम सङ्गविवर्जित || 18||
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् |
अनिकेत स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर || 19||
20
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते |
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया || 20||
Home
Read
Saved
Profile